Monday, May 16, 2011

दो रोटी का सवाल है .....




फकत दो  रोटी  का  सवाल  है ..
ये जिन्दगी भी कितनी बदहाल  है.. 

सड़क किनारे  जिंदगी पड़ी है लावारिस ..
और ऊँची  इमारतो  में  कमरे  बेमिसाल   है... .

फटे हाल गुजर जाती है जिंदगी 
एक एक बूंद पानी को तरसती ..

न कोई रहगुजर न कोई रहनुमा है 
फकत दो रोटी का गुमान है ......

काश के कोई फ़रिश्ता आये 
इन सुनी अंखियों में आशा लाये .

भरे  इनकी भी गागर सागर  से ...
और कोई  मजलूम भूखा न सो पाए ..

हरेक के तन में कपडा हो ...
सर पे एक छत हो .....

हो इन आँखों में भी सपने
न कोई हो  भूखा , न हो  मजबुर ...
चारो और हो सुकून ही सुकून ..

क्या ऐसा हो पायेगा ..
हर वक़्त मन में सवाल है 

बस फकत दो रोटी का सवाल है ....
जिंदगी कितनी तंगहाल है ....



  * * रेनू  मेंहरा  * *                                                


कहानी ...बचुली की


"बचूली" .....एक लड़की ..


आज स्मृति  पटल पर पुरानी यादो के बादल घिर आये हैं। दूर कहीं यादो के झरोखों से कुछ नन्हे नन्हे बादल घुमड़ घुमड़ कर शोर मचाने लगे हैं। उस शोर को सुन अचानक मै चौंक जाती हूँ ..

जैसे उस दिन हुआ था ....

शाम का वक्त ....मद्धम मद्धम बयार .....बसंत की रूत ..और सुहाना मौसम। प्रकृति मानो अपने यौवन पर इठला रही थी। मै भी आँगन में कुर्सी डाले उसकी इठलाहट का आनंद ले रही थी। सामने बगीचे में बच्चे अपने अपने खेलो में व्यस्त , खूब धमा -चौकड़ी मचा रहे थे। तभी सामने से एक औरत ....तन पर फटे ..कपडे ...अपने शरीर को जबरदस्ती ढकने की कोशिश। दयनीय सूरत ..पर उसमे एक गरिमा का एहसास ...परन्तु गरीबी भुखमरी के हालतो से धूल भरे चेहरे के पीछे भी एक कमसिन सुंदर काया मेरे समक्ष ...हाथ जोड़े खड़ी थी | मै यकायक चोंक गई ..अरे ये कहाँ से ...अचानक....?

क्योंकि दूर दूर तक आबादी का प्रश्न नहीं ...

ये बात है आज से कोई १५ साल पहले की ...जब मै अपने नाना जी के यहाँ गई थी। उनका घर पहाडो में एकदम चोटी पर है और सिर्फ एक ही घर है ..यानी आस पास नीचे की तरफ गांव। यही २-२-...४-४ घर ...दूर दूर तक फैले हैं ..और बीच बीच में  खेत - खलिहान, आडू-खुमानी ,पुलम और सेब  के वृक्ष। इन सबके बीचो बीच एक बड़ा सा मकान ..नाना जी का ...और वही आस पास के बच्चे ...जो खेल मै मस्त ..अपनी दुनिया में ...

वो लड़की  ....हाँ वो लड़की  .... "बचूली "

यही नाम कहा उसने। मासूम, दयनीय और विवशता से भरा उसका चेहरा। आँखों में निराशा के बादल ...और उम्मीद की किरण ...एक साथ। जैसे मुझे देखकर उसको सबल मिला हो। चुपके से आकर बैठ गई और रोने लगी ...मुझे बुरा लगा और दया भी आयी कि क्या होगी इसकी विवशता ...और क्यूँ ये इस तरह ...?? कई सवालो ने मुझे घेर लिया ...परन्तु उसको धीर अधीर होते देख हिम्मत नहीं जूटा पाई... जब वो शांत हुई ...उसे पानी दिया और फिर उसने अपनी कहानी बतानी शुरू की ....

"उसके परिवार में सास ससुर के अलावा ..जेठ और एक  ननद थी ...  उसका पति "हरी "(हरिया) कुछ मजदूरी का काम करता था।.सारा दिन घर और खेतो में काम करने के बाद जो भी मजदूरी उन्हें मिल पाती ..उनके गुजारे का एकमात्र साधन थी। सास ससुर अपने बुरे दिनों को कोसते और बहु को जिम्मेवार मानते ..विधुर जेठ और वो भी शराबी.... और नन्द कुंवारी ...पति "हरी " और "बचुली "...ये था उसका परिवार। दोनों किसी तरह अपने परिवार की डगमगाती नाव को पार लगाने का प्रयास कर रहे थे |एक दिन उसका पति -हरी , घर नहीं आया ....पास के गांव में बारात में काम करने गया था ..पता चला कि आते टाइम रस्ते में जंगल में ...उसका पैर फिसला और वो सीधे नीचे ....धडाम ....!!! उसकी जीवन लीला वही समाप्त ....
वो तो इस संसार से मुक्ति पा गया ...

और रह गई "बचुली" ...

उसकी असली परीक्षा तो अब शुरू हुई ....जेठ की बुरी नजर ...और सास ससुर के ताने, उसका जीना मुहाल करने लगे ...मरते खटते ...वो बिन पतवार की नाव को खेने लगी ..पर समय को तो कुछ और ही मंजुर् था ....ननद को एक दिन कोई भगा ले गया ...बचुली के तो कोई औलाद थी नहीं ..सो बेचारी अपना काम और सास ससुर की सेवा।

एक दिन ऐसा आया जिस का उसे गुमान भी नहीं था ..एक रात ....उसका जेठ .....
उसकी नियत में खोट आ गया था और वो उसके साथ जबरदस्ती करने लगा ....जेठ ने उसे बहुत डराया- धमकाया .
पर अपनी.. "बचुली तो बचुली थी" उसने भी हिम्मत नहीं हारी और उसने दतुली से ताबड़तोड़ ....खप खप.खप .... उस जेठ रूपी दरिंदे के हाथो पर कई वार कर दिए .| | बचुली , जिसको अपना सम्मान प्यारा था ...!!!!

डरी...सहमी ..लोक लाज के मारे वो रातो रात वहां से भाग आई और भागते भागते यहाँ तक.....".

उसकी कहानी सुन मेरी आँखे भी भीग आयी थी ....मैंने उसे और पानी दिया ...और उससे पूछा कि अब क्या ..??
उसका जवाब था .."दीदी ..इज्जते  जिंदगी जीण चानू ...के तुम मके सहार दयाला ?    (.दीदी ...इज्जत की  जिंदगी जीना चाहती हूँ ...क्या आप मुझे सहारा दोगी...?)

अब मै भोंचक्की ....".कि क्या कहूँ ...".

नाना जी को सारी बात बताई .... वो दिन और आज का दिन ....... वो आज भी उसी घर में ..एक लड़की की तरह ...
हर उस बसंत को देखती है जो हर लड़की देखती है अपने मायके में ...हर उस पल को जी रही है जो अपने माँ बाबा के घर में जीती थी ...
आज वो खुश है ...और मै भी.... कि मै उसका माध्यम बनी ...

हवा में सुगंध फैल गई थी .....आज ऋतू का इठलाना ...मन को सुकून दे रहा था

और  मै... भी सातवें आसमान में ....मन के पंख जो लग गए थे .....

आज कई दिनों बाद फिर वही  स्मृतियाँ .....





                                                                                     *******

  द्वारा ....रेनू मेहरा ...

पिया मिलन की आस ....


मस्त है शाम ये..दिल में एक आस है ..
पिया मिलन की चाह  में ..जोगन उदास है ...

कब आयेंगे  पिया ....मन में सवालात  है ..
जिया आज  अपना  इत  उत्  भरमात है ...

मन हर्षित और उल्लास  है ...
उठते जिया में कई  सवालात  है ...

 पलकें हैं मूंदी ,  जिया हुआ   भारी....
आज पिया को ताकुंगी रात सारी ..


आयेंगे तो गरबा उन्हें  लुंगी आज  लगा ...
न दूंगी जाने फिर कहीं ,  लुंगी मै कहीं  छुपा ..

तभी .. दूर.. भोपू का शोर ....मन  को हर्षात  है..
दरवजे  पे खड़ खड़ का  शोर ...जिया  धड्कात है...

भागी - भागी  ज्यूं  दरवाजे पर जात है ...
सामने पिया का खत फिर वो पात है...

झर झर नीर अंखियन से  फिर जो  बहात  हैं..
ज्यूँ  सागर में लहरें ...मचल-मचल  जात है ..

खत में लिखा है ..." न आ पाउँगा प्रिये ..".
न तकना राह मेरी ...कुछ न लिख  पाउँगा प्रिये ...

आज  पिया को तेरे ..देश ने पुकारा है ...
माँ के दूध को दुश्मन ने  ललकारा है ....

सरहद पार जो बैठा है दुश्मन ताक  में
उसके सीने को छलनी करने जाऊंगा ..

हो सका तो लौट के प्रिये ..मै फिर आऊंगा ..
हो सका तो लौट के प्रिये ..मै फिर आऊंगा ...

                      ******

***रेनू मेहरा ***                                

आशा निराशा ....


आशा निराशा ....

है... सिक्के के दो पहलु 

सुख दुःख की तरह आगे पीछे ...

संग संग चलते रहते ताउम्र ...

हर पल एहसास कराते ..

.हम है ..

तो तुम हो.... 

हम नहीं ....

तो तुम नहीं ..

जो तुम हो तो सहते रहो ...

ये गम और ये हर पल की ख़ुशी ...

न होंगे तो क्या मजा जीने का 

जिंदगी वीरान लगने लगेगी 

हर पल जो जीना हो तो

जियो हमारे संग ही ...

अन्तर्द्वंद ......


जब मौका आया तुमको टटोला ...
तुम नहीं थे वो जो कहते रहे ..

मन से सच माना था जिन्हें ..
आज वो कितने बदल गए ..

इन बनते बिगड़ते रिश्तो में 
किस पर करें विश्वास ....


जिस पर भी किया धोखा ही  मिला  
उम्मीद का दामन  सा  छूट गया ...

ये जिंदगी यूँ ही  गुजरती जायेगी ..
बिन पतवार के माझी की  नैया तो  डूब जायेगी .. 


दोस्ती नही कोई ..रिश्ता भी नही कोई ..
किस्मत से सब यहाँ  मिलते हैं ..


दूर जाना है  कही सबसे  दूर ..
सब बेमानी से यहाँ  लगते हैं ..

स्वार्थ से लबरेज  दुनिया है यहाँ  ..
आज नही तो कल गुमान होगा सबको ..
मेरी तरफ सब टूट बिखर जायेंगे ...

निराशा से भरा लगता होगा ये कहना 
पर कहीं न कही हरेक के भीतर ये पीड़ा है ..

टटोलो सब अपने भीतर अपने  को ...
सब साफ़ दीखने लगेगा ...
मन में उठते हुए तूफ़ान ...   "अंतर्द्वंद " को ....

---रेनू मेहरा ----