Monday, May 16, 2011

कहानी ...बचुली की


"बचूली" .....एक लड़की ..


आज स्मृति  पटल पर पुरानी यादो के बादल घिर आये हैं। दूर कहीं यादो के झरोखों से कुछ नन्हे नन्हे बादल घुमड़ घुमड़ कर शोर मचाने लगे हैं। उस शोर को सुन अचानक मै चौंक जाती हूँ ..

जैसे उस दिन हुआ था ....

शाम का वक्त ....मद्धम मद्धम बयार .....बसंत की रूत ..और सुहाना मौसम। प्रकृति मानो अपने यौवन पर इठला रही थी। मै भी आँगन में कुर्सी डाले उसकी इठलाहट का आनंद ले रही थी। सामने बगीचे में बच्चे अपने अपने खेलो में व्यस्त , खूब धमा -चौकड़ी मचा रहे थे। तभी सामने से एक औरत ....तन पर फटे ..कपडे ...अपने शरीर को जबरदस्ती ढकने की कोशिश। दयनीय सूरत ..पर उसमे एक गरिमा का एहसास ...परन्तु गरीबी भुखमरी के हालतो से धूल भरे चेहरे के पीछे भी एक कमसिन सुंदर काया मेरे समक्ष ...हाथ जोड़े खड़ी थी | मै यकायक चोंक गई ..अरे ये कहाँ से ...अचानक....?

क्योंकि दूर दूर तक आबादी का प्रश्न नहीं ...

ये बात है आज से कोई १५ साल पहले की ...जब मै अपने नाना जी के यहाँ गई थी। उनका घर पहाडो में एकदम चोटी पर है और सिर्फ एक ही घर है ..यानी आस पास नीचे की तरफ गांव। यही २-२-...४-४ घर ...दूर दूर तक फैले हैं ..और बीच बीच में  खेत - खलिहान, आडू-खुमानी ,पुलम और सेब  के वृक्ष। इन सबके बीचो बीच एक बड़ा सा मकान ..नाना जी का ...और वही आस पास के बच्चे ...जो खेल मै मस्त ..अपनी दुनिया में ...

वो लड़की  ....हाँ वो लड़की  .... "बचूली "

यही नाम कहा उसने। मासूम, दयनीय और विवशता से भरा उसका चेहरा। आँखों में निराशा के बादल ...और उम्मीद की किरण ...एक साथ। जैसे मुझे देखकर उसको सबल मिला हो। चुपके से आकर बैठ गई और रोने लगी ...मुझे बुरा लगा और दया भी आयी कि क्या होगी इसकी विवशता ...और क्यूँ ये इस तरह ...?? कई सवालो ने मुझे घेर लिया ...परन्तु उसको धीर अधीर होते देख हिम्मत नहीं जूटा पाई... जब वो शांत हुई ...उसे पानी दिया और फिर उसने अपनी कहानी बतानी शुरू की ....

"उसके परिवार में सास ससुर के अलावा ..जेठ और एक  ननद थी ...  उसका पति "हरी "(हरिया) कुछ मजदूरी का काम करता था।.सारा दिन घर और खेतो में काम करने के बाद जो भी मजदूरी उन्हें मिल पाती ..उनके गुजारे का एकमात्र साधन थी। सास ससुर अपने बुरे दिनों को कोसते और बहु को जिम्मेवार मानते ..विधुर जेठ और वो भी शराबी.... और नन्द कुंवारी ...पति "हरी " और "बचुली "...ये था उसका परिवार। दोनों किसी तरह अपने परिवार की डगमगाती नाव को पार लगाने का प्रयास कर रहे थे |एक दिन उसका पति -हरी , घर नहीं आया ....पास के गांव में बारात में काम करने गया था ..पता चला कि आते टाइम रस्ते में जंगल में ...उसका पैर फिसला और वो सीधे नीचे ....धडाम ....!!! उसकी जीवन लीला वही समाप्त ....
वो तो इस संसार से मुक्ति पा गया ...

और रह गई "बचुली" ...

उसकी असली परीक्षा तो अब शुरू हुई ....जेठ की बुरी नजर ...और सास ससुर के ताने, उसका जीना मुहाल करने लगे ...मरते खटते ...वो बिन पतवार की नाव को खेने लगी ..पर समय को तो कुछ और ही मंजुर् था ....ननद को एक दिन कोई भगा ले गया ...बचुली के तो कोई औलाद थी नहीं ..सो बेचारी अपना काम और सास ससुर की सेवा।

एक दिन ऐसा आया जिस का उसे गुमान भी नहीं था ..एक रात ....उसका जेठ .....
उसकी नियत में खोट आ गया था और वो उसके साथ जबरदस्ती करने लगा ....जेठ ने उसे बहुत डराया- धमकाया .
पर अपनी.. "बचुली तो बचुली थी" उसने भी हिम्मत नहीं हारी और उसने दतुली से ताबड़तोड़ ....खप खप.खप .... उस जेठ रूपी दरिंदे के हाथो पर कई वार कर दिए .| | बचुली , जिसको अपना सम्मान प्यारा था ...!!!!

डरी...सहमी ..लोक लाज के मारे वो रातो रात वहां से भाग आई और भागते भागते यहाँ तक.....".

उसकी कहानी सुन मेरी आँखे भी भीग आयी थी ....मैंने उसे और पानी दिया ...और उससे पूछा कि अब क्या ..??
उसका जवाब था .."दीदी ..इज्जते  जिंदगी जीण चानू ...के तुम मके सहार दयाला ?    (.दीदी ...इज्जत की  जिंदगी जीना चाहती हूँ ...क्या आप मुझे सहारा दोगी...?)

अब मै भोंचक्की ....".कि क्या कहूँ ...".

नाना जी को सारी बात बताई .... वो दिन और आज का दिन ....... वो आज भी उसी घर में ..एक लड़की की तरह ...
हर उस बसंत को देखती है जो हर लड़की देखती है अपने मायके में ...हर उस पल को जी रही है जो अपने माँ बाबा के घर में जीती थी ...
आज वो खुश है ...और मै भी.... कि मै उसका माध्यम बनी ...

हवा में सुगंध फैल गई थी .....आज ऋतू का इठलाना ...मन को सुकून दे रहा था

और  मै... भी सातवें आसमान में ....मन के पंख जो लग गए थे .....

आज कई दिनों बाद फिर वही  स्मृतियाँ .....





                                                                                     *******

  द्वारा ....रेनू मेहरा ...

3 comments:

  1. कुछ जीवन मे घटित पल एक छाप छोड़ जाते है, मन को कई सवालो से घेरती हुई कहानी और साथ ही आपका सहयोग उस पीड़ित के साथ एक सुखद एहसास कराती अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  2. शुक्रिया प्रतिबिम्ब जी ...जीवन मे कई रंग देखने को मिलते हैं ..एक रंग ये भी था ..सादर ..

    ReplyDelete
  3. बलूची अकेली नहीं है....... इस दुनिया में उसके जैसी कितनी बलुचियाँ हैं जिन्हें नानाजी का घर नहीं मिल पाता....... लेकिन इससे अच्छी पहल और क्या होगी कि चाहे सब ना सही पर एक बलूची तो गयी अपने मायके.........

    रेनू जी समय मिले तो मेरा भी एक भुला बिसरा ब्लॉग है...

    १.) :- ( मेरी लेखनी, मेरे विचार.. )

    २.) :- ( अनुवादक पन्ना )



    .

    ReplyDelete