ले आया वक्त फिर उन्ही राहों पर .
दौर ऐ गर्दिश अपना रंग दिखलाने लगे ...
तुमने भी साथ छोड़ा मेरा ....
हम ख़ाक मे जाने लगे ....
न सोचा था की एक दिन ..
ये आलम होगा अपना ...
हम तो अपनी ही लाश पर
कैसे सर नवाने लगे ....
गर जान पाते की यु उल्फत होगी ...
तो तुमसे न दिल लगाने की जुरत होती ..
रह लेते हम युही बेजार से ...
पर दिल को सताने की न हिम्मत होती ...
न उनको होता इश्क हमसे ..
और न ही हमें उनसे मोहब्बत होती ...
गर्देशे दौर मे जमाने को क्या कहे ..
जब हमसाया ही बेमुरव्वत निकला ...
अब तो जी रहे है न मरते हम ...
अपनी ही लाश को ढोते फिरते हम ..
न रूह रही बाकी जिस्म में ...
और न ही जान अब बाकी है ...
सोच रहे की क्या करें अब ...
अब कौन सा इम्तहान बाकी है ....
---रेनू मेहरा --
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